स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार क्या थे? - thebetterlives

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तो आज मैं आपके लिए लेकर आई हूं एक खास टॉपिक जिसके बारे में आप शायद ही जानते होंगे!  

चलिए बिना समय गवाएं शुरू करते हैं आज का टॉपिक।

आज मैं आपको बताने वाली हूं स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार क्या थे?

स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार क्या थे? - thebetterlives 


स्वामी विवेकानंद को विश्व एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता है जिनकी बुद्धि बहुत व्यापक थी और जिसने अपनी प्रचंड इच्छाशक्ति को भारत के पुनरुत्थान के कार्य में लगा दिया था।

विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता के एक समृद्ध परिवार में हुआ था।
विवेकानंद नाम उन्होंने सन्यास ग्रहण करने के उपरांत शिकागो में धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए मुंबई से प्रस्थान करते समय ग्रहण किया।

उनके गुरु का नाम रामकृष्ण परमहंस था। स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस के धार्मिक संदेश को लोकप्रिय बनाया तथा उसे एक ऐसे रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की जो भारतीय समाज में आवश्यकताओं के अनुकूल थी।

दोस्तों! आज मैं आपको स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचारों को जानने में आपकी सहायता करूंगी।

स्वामी विवेकानंद! अरस्तु, प्लेटो या मार्क्स की भांति कोई राजनीतिक चिंतक नहीं थे तथा ना ही उन्होंने किसी राजनीतिक सिद्धांतों को विकसित किया। 

लेकिन उन्होंने जो जगह-जगह अपने भाषण दिए और जो रचनाएं उनके द्वारा लिखी गई, जिन रचनाओं में उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त किया वे विचार भारतीय राष्ट्रवाद के धार्मिक सिद्धांत की नींव का निर्माण करते हैं।

उन्होंने महात्मा गांधी की भांति राजनीति के आध्यात्मिकरण पर जोर दिया।

आज हम विभिन्न बिंदुओं के माध्यम से स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक चिंतन पर चर्चा करेंगे। स्वामी विवेकानंद देश की राजनीतिक परिस्थितियों और परतंत्रता के प्रति अवश्य ही जागरूक थे।
स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक दर्शन -

(1) राष्ट्रवाद का धार्मिक सिद्धांत:-

हीगल की भांति विवेकानंद का भी विश्वास था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक प्रमुख तत्व की अभिव्यक्ति है। उनकी दृष्टि में धर्म भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण नियामक सिद्धांत रहा है।

विवेकानंद के शब्दों में, "जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है वैसे ही हर राष्ट्र के जीवन में एक प्रधान तत्व होता करता है, अन्य शब्द तत्व उसी में केंद्रित होते हैं भारत का तत्व है धर्म"।

इसलिए उन्होंने राष्ट्रवाद के एक धार्मिक सिद्धांत की नींव का निर्माण करने के लिए कार्य किया। विवेकानंद ने राष्ट्रवाद के धार्मिक सिद्धांत का प्रतिपादन इसलिए किया कि वे समझते थे कि आगे चलकर धर्म ही भारत के राष्ट्रीय जीवन का मेरुदंड बनेगा।

(2) स्वतंत्रता संबंधित विचार:-

राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में विवेकानंद की महत्वपूर्ण देन है, उनकी स्वतंत्रता संबंधित अवधारणा। उनकी वाणी और कर्मों में स्वतंत्रता के प्रति उनकी लगन परिलक्षित होती है। 

वे स्पष्ट रूप में लिखते हैं,"जीवन, सुख एवं समृद्धि की एकमात्र शर्त, चिंतन और कार्य में स्वतंत्रता है। जिस क्षेत्र में वह नहीं होगी, उस क्षेत्र में मनुष्य जाति और राष्ट्र का पतन होगा।"

उनकी धारणा थी कि विश्व अनवरत गति से स्वतंत्रता की खोज कर रहा है। विवेकानंद ने स्वतंत्रता को प्राकृतिक अधिकार माना है और आशा की है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए।

विवेकानंद की व्यावहारिकता इस बात में है कि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक भावना के साथ-साथ मानव की सामाजिक और सर्वांगीण प्रगति के लिए स्वतंत्रता को उत्याज्य समझा।

स्वामी विवेकानंद के समय में भारत अंग्रेजों के अधीन था। स्वामी विवेकानंद के मन में स्वतंत्रता के प्रति एक ललक थी। वह भारत को स्वतंत्र देखना चाहती थे।

व्यक्ति और समाज की आत्मिक, धार्मिक, नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में स्वतंत्रता अति आवश्यक है। उन्होंने प्रसंगवश राजनीतिक दर्शन संबंधित जो भी उल्लेख किए तथा जो भी राजनीतिक विचार प्रस्तुत किए, उनसे यही आभास होता है कि वे महात्मा गांधी की भांति राजनीति का आध्यात्मिकरण करना चाहते थे। 

भारत की आजादी में विवेकानंद की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने लोगों के दिल में स्वतंत्रता की चिंगारी का काम किया है। उनके विचारों से सभी लोग प्रभावित हो जाते थे।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार, सुख और समृद्धि का एकमात्र उपाय शर्त- चिंतन और कार्य में स्वतंत्रता है।

स्वामी विवेकानंद स्वतंत्रता को बहुत अधिक महत्व देते थे। उन्होंने स्वतंत्रता को मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार माना है।
उनकी इच्छा थी कि सभी जाति, धर्म, वर्ग या सभी मनुष्य को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।

स्वामी विवेकानंद धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। यह धर्म को ही हर समस्या का हल मानते थे। 

स्वामी विवेकानंद के समय में भारत आर्थिक रूप से, सामाजिक रुप से और राजनीतिक रूप से कमजोर हो चुका था, लेकिन धार्मिक रूप से भारत जब भी बहुत मजबूत था। स्वामी विवेकानंद जानते थे कि भारत के लोग अपनी संस्कृति से बहुत प्यार करते हैं और स्वामी विवेकानंद भारत की संस्कृति को ही उजागर करना चाहती थे।

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(3) विचारों की स्वतंत्रता:-

स्वामी विवेकानंद का कहना था कि विचार और कर्म की स्वतंत्रता जीवन के विकास और कल्याण के लिए एकमात्र उपाय हैं। जहां इन सबका अभाव होता है वहां मनुष्य जाति और राष्ट्रीय अंधकार की ओर अग्रसर हो जाता है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार सभी व्यक्तियों को अपने हक के लिए आवाज उठाने का अधिकार है। भारतीय राजनीति में निम्न लोगों के विचारों की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है।

(4) लोकतंत्र के समर्थक:-

स्वामी विवेकानंद को हर क्षेत्र की जानकारी थी। वह देश की हर प्रकार की परिस्थिति से अवगत थे। वह लोगों के सामने कभी भी नेता बनकर नहीं उभरे परंतु उन्होंने भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
स्वामी विवेकानंद लोकतंत्र के समर्थक थे। स्वामी विवेकानंद ने विभिन्न माध्यमों से लोगों में जागरूकता फैलाई है।

(5) प्रतिरोध-संबंधी विचार:-

स्वामी विवेकानंद का एक अन्य महत्वपूर्ण राजनीतिक विचार यह है कि उनका शक्ति एवं निर्भीकता का सिद्धांत, जिसे राजनीतिक शास्त्र में 'प्रतिरोध के सिद्धांत' के नाम से जाना जाता है।

उन्होंने भारतीय समाज में फैली कुरीतियों को खत्म करने का प्रयास किया तथा लोक कल्याण के लिए अनेक कार्य किए।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार, भारतीयों को शक्ति एवं निर्भीकता का संदेश देकर और उनके दिलों में यह भावना भरने का प्रयास किया की शक्ति एवं निर्भीकता के अभाव में व्यक्ति ने तो अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकता है और ना ही अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकता है।

स्वामी विवेकानंद के अनुसार, भारतीय शक्ति, निर्भीकता और आत्मबल के आधार पर ही विदेशी शासकों का सामना कर सकते हैं और भारत को स्वतंत्र बना सकते हैं।

स्वामी विवेकानंद राजनीतिक विवादों से दूर रहते थे। वह भारतीय समाज में पवित्रता, निर्भीकता और त्याग की भावना को उत्पन्न कर रहे थे। वह शारीरिक शक्ति से ज्यादा मानसिक शक्ति को महत्व देती थे।

वह लोगों को मानसिक रूप से मजबूत बना रहे थे। वह राष्ट्र के उच्च आदर्शों का अनुसरण करने में तथा बाह्य वस्तुओं पर अधिकार न जमाने में विश्वास करते थे। स्वामी विवेकानंद जी मानते थे कि जब समुचित शिक्षा के द्वारा आत्मिक बल का सृजन हो जाता है, तो उसके समक्ष किसी प्रकार का अत्याचार नहीं ठहर पाता है।

(6) अंतर्राष्ट्रवाद:-

स्वामी विवेकानंद अंतर्राष्ट्रवादी और विश्व बिंदुओं के समर्थक थे। स्वामी विवेकानंद जी भारत से बहुत प्यार करते थे। वह भारत के लिए एक शुभचिंतक थे। वह दुनिया की अन्य किसी जाति या राष्ट्र से घृणा भी नहीं करते थे। 

स्वामी विवेकानंद जी को भेदभाव अच्छा नहीं लगता था। वह हर व्यक्ति को समान दृष्टि से देखते थे।

उनके लिए सभी मनुष्य एक समान है। वह क्षेत्रवाद में विश्वास ने करके राष्ट्रवाद में विश्वास करते थे।

स्वामी विवेकानंद जी लोगों को भारतीय संस्कृति से जोड़े रखने का प्रयास करते थे।

वह लोगों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करते रहते थे। वह अप्रत्यक्ष रूप से भारत की राजनीति में एक अहम भूमिका निभाते थे। उनके विचारों का भारतीय राजनीति पर गहन असर हुआ था।

(7) समाजवाद-संबंधित विचार:-

स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक था -"मैं एक समाजवादी" हूं। समाजवादी विचारों ने उनके मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाला और उन्होंने सव्य को एक समाजवादी कहना प्रारंभ कर दिया। 

उनके हृदय में गरीबों और दलित वर्गों के प्रति असीम संवेदना थी। वह गरीबों को उनके अधिकार दिलाने में काफी सहायता करते थे।

उन्होंने गरीब और दलित वर्गों के प्रति लोगों में जो जागरूक किया। स्वामी विवेकानंद का मानना था कि एक इंसान के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि उसे भरपेट भोजन मिले तथा पर्याप्त मात्रा में पोषण मिले।

वह दुखी लोगों के प्रति हमेशा सहानुभूति रखते थे। भारतीय समाज में फैली हुई अंधविश्वास, जातिवाद, क्षेत्रवाद और छुआछूत जैसी कुरीतियों को हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहते थे तथा एक सफल समाज की स्थापना करना चाहते थे। वह भारत के हित को सर्वोपरि मानते थे। वह एक सच्चे देशभक्त थे।

रामकृष्ण परमहंस की भांति विवेकानंद भारत की निर्धनता, शिक्षा और अज्ञानता को एक कलंक माना और घोषणा की कि भूखे पेट रहने वाले व्यक्तियों को धर्म की शिक्षा देना अर्थहीन है तथा जनसाधारण को ऊंचा उठाए बिना किसी भी प्रकार का राजनीतिक उत्थान संभव नहीं है।

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(8) व्यक्ति की गरिमा:-

स्वामी विवेकानंद के अनुसार राष्ट्र व्यक्तियों से ही बनता है। अतः सब व्यक्तियों को अपने में पुरुषत्व, मानव गरिमा तथा सम्मान की भावना, आदि श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहिए।

वास्तव में व्यक्ति ही राष्ट्रीय ढांचे के घटक होते हैं इसलिए जब एक व्यक्ति स्वास्थ्य, नैतिक तथा दयालु नहीं होते तब तक राष्ट्र की महानता तथा सुख-समृद्धि की आशा करना व्यर्थ है।

स्वामी विवेकानंद के समय जो मनुष्य अपने आप को तुछ और हीन महसूस कर रहा था, उस मनुष्य को विवेकानंद जी ने अपने विचारों के माध्यम से तथा अपने भाषणों के माध्यम से व्यक्ति के अंदर उस गरिमा को जगाने का प्रयास किया।

(9) अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर बल:-

आधुनिक विश्व में विभिन्न समूह तथा वर्गों के अधिकारों के समर्थकों के बीच निरंतर संघर्ष चल रहा है। फलस्वरूप समाज धीरे-धीरे अधिकारों के परस्पर विरोधो सिद्धांतों की सफलता के लिए युद्ध का आंकड़ा बनाते जा रहा है।

अतः स्वामी विवेकानंद ने लोगों के कल्याण के लिए अपने विचारों, भाषणों तथा पुस्तकों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया। स्वामी विवेकानंद अप्रत्यक्ष रूप से भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

उन्होंने धर्म का सहारा लेकर समाज तथा मनुष्य जाति को सुधारने का अचूक प्रयास किया।

स्वामी विवेकानंद एक महान हस्ती थे। स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन को 'युवा दिवस' के रूप में मनाया जाता है।

4 जुलाई 1902 को यह महान हस्ती स्वर्ग लोक पधार गई। आज भी स्वामी विवेकानंद के विचार लोगों के दिमाग पर छाए हुए हैं। उनके विचारों से आज भी लोग प्रभावित है।

आज के लेख में इतना ही उम्मीद करती हूं आपको स्वामी विवेकानंद के बारे में पढ़कर अच्छा लगा होगा।

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आज की पोस्ट में बस इतना ही मिलते हैं एक और नई और रोचक पोस्ट के साथ है तब तक  अपना और अपने परिवार का ख्याल रखें अपने चारों तरफ सफाई बनाए रखें धन्यवाद।

आपकी दोस्त अंशिका डाबोदिया।
                          

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