कौन-सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?

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तो आज मैं आपके लिए लेकर आई हूं एक खास जानकारी जो आपके लिए है बेहद जरूरी और इंटरेस्टिंग!

दोस्तों आज हम इस लेख के माध्यम से जानेंगे कि एक सन्यासी के लिए कौन सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?

कौन-सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?


आईए इसके बारे में विस्तार से जानने की कोशिश करते हैं।

दोस्तों वैदिक सिद्धांतों के अनुसार चार विशेष आश्रमों का वर्णन किया गया है।

नंबर 1. ब्रह्माचार्य आश्रम।

नंबर 2.  गृहस्थाश्रम।

नंबर 3. वानप्रस्थ आश्रम।

नंबर 4. संयास आश्रम।

दोस्तों इन आश्रमों को बनाने का मुख्य उद्देश्य क्या है कि
जो जीव मनुष्य रूप में आ चुका है। जो सबसे बड़ी उपलब्धि इस संसार में आकर हमने मनुष्य रूप में प्राप्त कर ली है।

अब क्या किया जाए कि इस मनुष्य रूपी जीवन से परम सिद्धि प्राप्त की जाए और इसलिए आश्रम रूपी पद्धति का निर्माण किया गया है भगवान के द्वारा स्वयं।

लेकिन अगर व्यक्ति आश्रम से ही आसक्त हो जाता है और वह मान लेता है कि नहीं मैं तो गृहस्थ हूं और गृहस्थ का मतलब है कि वह सारे आश्रमों का पालन करने वाला है। इसलिए मैं सबसे श्रेष्ठ आश्रम में हूं।

कौन-सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?


मैं सबसे सही जगह पर हूं। मैं सबसे महान हूं।

अथवा कोई ब्रह्मचारी है और वह सोचता है कि देखो मैं तो कठोर ब्रह्मचारी हूं। मैंने तो कठोर ब्रह्मचर्य का पालन किया है और लोगों की तरह विषय आसक्त नहीं हूं।

या फिर कोई सन्यासी यह मानने लगे कि देखो मैंने सब त्याग दिया। अरे भैया तुमने सब तो त्याग दिया। लेकिन तुमने अपने इस त्यागने के मोह को नहीं त्यागा तो इस त्याग का कोई लाभ नहीं है।

श्रीमद्भागवत के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अलग-अलग आश्रमों में हो और उसका बड़ी ही कठोरता से और बड़ी ही सुंदरता से पालन भी कर रहे हो। लेकिन भगवान श्रीहरि में आपने रत्ती भर भी लग्न नहीं लगाई। भगवान में रती जागृत नहीं करी उनकी कथाओं में रती जागृत नहीं करी

तो मेरे प्यारे आश्रमों के धर्मों का पालन करना, आश्रमों के नियमों का पालन करना यह आपने जितनी भी मेहनत करी है जितना भी परिश्रम किया है वह सब बेकार का है।

कौन-सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?


तो इसलिए यह ध्यान रखा जाए कि इनमें से सारे आश्रम पवित्र है। क्योंकि आश्रम का अर्थ ही यह है कि जहां आश्रय लिया जाता है। गुरु और भगवान का आश्रेय लिया जाता है गुरु और भगवान श्री कृष्ण का आश्रय लिया जाता है।

देखने में तो अलग है ब्रह्मचर्य आश्रम और सन्यास आश्रम।

क्योंकि अन्य और कोई कार्य नहीं है।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य जो दूसरे आश्रम है दूसरे गृहस्थ इत्यादि जो हैं वह निष्कर्ष हो गए हैं।

सज्जनों एक आश्रम का विशेष होने का तात्पर्य यह नहीं है कि दूसरा आश्रम निकर्ष है।

जैसा कि कई बार समाज में यह देखा जाता है कि विवाह का अर्थ है कि 2 मांस मज्जा के बने हुए गंदे शरीरों का एक दूसरे के प्रति भोग। नहीं यह बिल्कुल गलत है यह भ्रांति है।

क्योंकि जीव की आसक्ति केवल इंद्रिय भोग में है इसलिए वह हर कार्य का अर्थ यही समझता है।

स्त्री और पुरुष का इकट्ठा होना केवल इंद्रिय भोग के लिए समझता है।

दोस्तों विवाह के लिए दो शरीरों का मिलन केवल भोग के लिए नहीं है।

विवाह दो परंपराओं का मिलन है। दो संस्कृतियों का मिलन है और यहां पर क्या किया जाता है। जब फेरे लिए जाते हैं अग्नि के चक्कर लगाए जाते हैं तो स्वयं भगवान की परिक्रमा की जाती है।
अग्नि की परिक्रमा की जाती है।

कौन-सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?


और प्रण लिया जाता है कि हम इस धर्म का पालन करेंगे और पालन करते हुए क्या करेंगे रति भगवान में जागृत करेंगे। जैसे कई पद्धतियों में विष्णु पद्धतियों में विवाह के समय पर पुरुष बोलता है कि मैं इस स्त्री को स्वीकार करता हूं राधा कृष्ण के उपहार स्वरूप।

तो राधा कृष्ण का उपहार है उन्होंने उसका भोग थोड़ी ना किया जाएगा उसकी सेवा की जाएगी।

तो इस ग्रहस्त आश्रम को इतना भी तुच्छ ना समझा जाए कि यह एकदम निकृष्ट और भोग के लिए ही बना है।

कि जितना चाहो उतना करो और ना ही इतना महान समझा जाए कि इस आश्रम के बिना अन्य कोई कार्य हो नहीं सकता।

क्योंकि हर आश्रम का अपना एक महत्व है और यह गृहस्थ आश्रम में भगवत भक्ति को प्राप्त करने के लिए बना है।

इसलिए श्रीमद्भागवत में यहां तक बोल दिया गया कि अगर आपकी किसी भी आश्रम में रहते हुए भगवान में सरलता से मति जाती है बिना किसी विघ्न के भगवान से सीधी लो लगती है तो वही आश्रम आपके लिए सर्वश्रेष्ठ है।

ना ही ब्रह्मचर्य आश्रम अपने आप में श्रेष्ठ है।

ना ही सन्यास आश्रम अपने आप में श्रेष्ठ है।
 
ना हि ग्रहस्त आश्रम अपने आप में श्रेष्ठ हैं।

और ना ही वानप्रस्थाश्रम अपने आप में श्रेष्ठ हैं।

श्रेष्ठ क्या है जिस परिस्थिति में आपका मन विशेष रुप से भगवान श्रीकृष्ण में लग जाय वही आश्रम सर्वश्रेष्ठ है।

कौन-सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?


यह कोई भोग विलासिता नहीं है।

जिस प्रकार से हम लोग यह चुन नहीं कर सकते कि कौन हमारी माता होगी, कौन हमारे पिता होंगे, कौन हमारे भाई होंगे, उसी प्रकार से पत्नी भी हम चूज नहीं कर सकते यह भी निर्धारित है।

स्त्री के उदर में प्रविष्ट होते ही हम अपने कर्मों के आधार पर सब कुछ निर्धारित कर लेते हैं। कौन हमारी माता, कौन हमारे भाई, कौन हमारी पत्नी, कौन हमारे पिता यह सब निर्धारित हो जाता है। जब हम एक स्त्री के गर्भ में आते हैं।

और मनुष्य उस कर्म के निर्धारित आगे चलता जाता है परंतु भगवान उसको साथ में क्या देते हैं एक फ्री दिल देते हैं।

एक इच्छा करने की शक्ति देते हैं। जिससे वह यह निर्णय लेता है कि मुझे भगवान की शरण में जाना है अथवा नहीं जाना।

और उसकी शुद्ध इच्छा को देखकर जो उसकी स्वतंत्र इच्छा है उसका सदुपयोग देखकर भगवान उसको सन्मार्ग पर लेकर जाते हैं।

तो सज्जनों अगर कोई व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में है या
प्रवेश करना चाह रहा है तो उसको यह याद रखना चाहिए कि यह ग्रहस्थ आश्रम सिर्फ भगवान को प्रसन्न करने के लिए ही होना चाहिए।

दोस्तों स्त्री भोग के लिए नहीं बनी और ना ही पुरुष स्त्री के भोग के लिए बना है। दोनों एक साथ मिले और दोनों एक साथ भगवत भक्ति में लगे यह ज्यादा महत्वपूर्ण है।

और अगर वह भगवत भक्ति में लगते हैं तो वह उस आश्रम में भी परम महान है। नहीं तो ऐसा नहीं होता फिर प्रहलाद भगत 5 से 7 वर्ष की आयु में बोल रहे हैं कि यह गृहस्थ आश्रम केवल भोग विलास की क्रिया करने के लिए ही है लोग इसी में लगे रहते हैं।

वेदव्यास जी खुद इसको तुच्छ सुख मानते हैं। वरना वह भी भोग विलास में पड़कर पुत्र की उत्पत्ति ना करते और इस सुख को तुचछ कहने वाले स्वयं वेदव्यास जी खुद गृहस्थाश्रम में ना होते।

तो गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने के बाद कार्य क्या किया जा रहा है। यह महत्वपूर्ण है इंद्रिय भोग में ही आशक्ती है या और किसी लक्ष्य के लिए हैं हम।

कौन-सा आश्रम सर्वश्रेष्ठ रहता है सन्यास या गृहस्थ?


लक्ष्य क्या?

भगवत सेवा के लिए। तो आप किसी भी आश्रम में रहे। चाहे वह ब्रह्मचारी हो। वानप्रस्थ आश्रम हो। सन्यास आश्रम हो या गृहस्थ आश्रम हो।

हमारा मुख्य उद्देश्य आश्रम में आसक्ती नहीं और ना ही उस आश्रम से मिलने वाली प्रतिष्ठा में आसक्ति है। हां जी क्योंकि संयास आश्रम की अपनी एक प्रतिष्ठा है या फिर ग्रस्त आश्रम की अपनी प्रतिष्ठा है कि सभी आश्रम के पालन के लिए उसे माना जाता है।

सज्जनों ना तो उसके प्रतिष्ठा में आसक्ति और ना उसके सिद्धांतों में आसक्ति उसका उपयोग होना चाहिए। सिर्फ भगवान श्री हरि के चरणों में स्थान प्राप्त करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करने के लिए उनकी कथाओं में मन लगाने के लिए, चित्त लगाने के लिए, ध्यान लगाने के लिए।

दोस्तों ऐसा करने से हमारा जीवन सार्थक होगा। जिस आश्रम में होंगे वह आश्रम सार्थक होगा। जिस वरण में होंगे वह वरण सार्थक होगा।
जिस देश में होंगे वह देश सार्थक होगा।

जिस भाषा का उच्चारण करेंगे वह भाषा सार्थक होगी।
हर वस्तु सार्थक हो जाएगी अगर उसके सामने एक मेरे कृष्ण कन्हैया लग जाएंगे और अगर एक कृष्ण को हटा देंगे तो यह सारी वस्तु शून्य हो जाएगी।

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दोस्तों आज के लेख में बस इतना ही मिलते हैं ऐसी ही एक और रोचक और ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ तब तक  अपना और अपने परिवार का ख्याल रखें अपने चारों तरफ सफाई का विशेष ध्यान रखें धन्यवाद।

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